Saturday, September 03, 2011

सोच


सोच रहा हूँ की ये क्या सोच रहा हूँ मैं,
सोच सोच कर ये क्या खोज रहा हूँ मैं? 
सोच में इतना कैसे डूब गया?
की मैं सोच नहीं ये भी भूल गया. 

भीड़ में अकेला करती है सोच, 
और तन्हाई में भीड़ को चाहती भी. 
जो है पास उससे दूर करती है सोच,
और दूरी को नजदीकियां बनाती भी. 

मुझको मुझसे छुपाती है सोच,
और मुझे तुमसे मिलाती भी. 
मेरे अधूरेपन का एहसास है सोच, 
और वही तुमसे प्यार जताती भी. 

मेरे हर डर का जज़्बात है सोच,
और हिम्मत की हर आस भी. 
कभी पल से ज़िन्दगी छिनती है सोच,
और कभी ज़िन्दगी में पल भरती भी.  

साँसों में साँसें उलझाती है सोच, 
और कभी मुश्किलें सुलझाती भी. 
जीने की वो हर आरज़ू है सोच,
और मरने की हर तमन्ना भी. 

मेरे बचपन की वो यादें है सोच,
और बुढ़ापे की लाठी भी.  
मेरा कल, आज और कल है सोच,
पर मुझे बनाती और मिटाती भी. 

सोच नहीं तो क्या हूँ मैं? 
इस बात से अंजान हूँ मैं.
सोच नहीं तो मेरा अस्तित्व क्या है? 
सोच नहीं तो मेरी परिभाषा क्या है? 

मेरे जीवन की कहानी है ये सोच, 
घटना नहीं पर मेरा अनुवाद है सोच, 
मुझे मुझमें उलझाए रखना है इसको 
कुछ और ना सही, एक नशा है सोच.

3 comments:

chunnal said...

great sir ji its really a nice poem .
as its being said - its all in the mind .!!

Jaymin said...

Kya baat he, very deep thought - rather "Sauch".

Rasheed said...

good one...sochne ki baat hai