Wednesday, July 31, 2013

दरवाज़े - Doors

एक दरवाज़ा था 
जो मुझे पुकार रहा था 
मेरे करीब जाते ही वो खुल गया 

पर ये क्या ? 
भीतर एक और दरवाज़ा था 
उसके खुलते ही एक और, फिर एक और 

दरवाज़े खुलते रहे 
मैं भीतर जाता रहा 

घंटे, दिन, हफ्ते, साल बीत गए 

दरवाज़े खुलते रहे 
मैं भीतर जाता रहा 

समय की मर्यादा टूट गयी 
स्थान का आभास छूट गया 
खुद के होनेका एहसास भी मिट गया 

दरवाज़े खुलते रहे 
मैं भीतर जाता रहा 

फिर एक दरवाज़ा खुलते ही 
आगे कोई दरवाज़ा न था 

एक स्पंद था और ख़ामोशी थी 
मैं था और मैं जीवंत था 
आनंद था और प्रेम भी था 

मैंने पूछा 'तुम कौन हो ?' 
ख़ामोशी बोली, 'मैं तुम ही तो हूँ '

मैंने पीछे मुडके देखा तो 
खुदको अनगिनत दरवाज़ों के पीछे 
कौतुहल से देखते पाया 

2 comments:

Abha Iyengar said...

bahut khoob!

Anonymous said...

Thank you for such liberating poetry Kamlesh!! God bless!