चांदी की चादर ओढ़े नाचती हैं किरनें नदी पर
ख़ुशी की धुप में गुनगुनाती हैं यादें ज़मीन पर
गम की छाँव में झिलमिलाती है चांदनी रात
ज़िन्दगी की हर सोच पर आज करनी है कुछ बात
सोच के ताबूत में आज कैद है हर आवाज़
बांध की दीवारों में बंद है हर झील का साज़
काँटों के सेज पर बिची है हर फूल की सुहास
नियमों की मोहताज है आज हमारी हर सांस
प्रतिबन्ध का प्रतिबिम्ब है आज हर ज़िन्दगी
मुझे आज़ाद करो, ये कहती है हर बंदगी
इंसान ने इंसान को जकड़े रखा है क्यों?
खुदा की ज़मीन पर ये बेड़ियाँ है क्यों?
आज़ाद होना है, पर आज़ाद करना नहीं
जाना यहाँ से है, पर रहना फिरभी है यहीं
वो क्या है जो मैं समझ नहीं पाता हूँ
मेरी नासमझी है, या लोगों की अंधी आरज़ू
क्यों दुनिया की स्पर्धा में बिचड रहा हूँ मैं?
क्यों हर दुनियादारी से पिछड़ रहा हूँ मैं?
वो क्या है जो सदियों से ढूंढ रहा हूँ मैं?
वो क्या है जो सदियों से ढूंढ रहा हूँ मैं?