Saturday, July 30, 2011

वो क्या है


चांदी की चादर ओढ़े नाचती हैं किरनें नदी पर
ख़ुशी की धुप में गुनगुनाती हैं यादें ज़मीन पर
गम की छाँव में झिलमिलाती है चांदनी रात
ज़िन्दगी की हर सोच पर आज करनी है कुछ बात

सोच के ताबूत में आज कैद है हर आवाज़
बांध की दीवारों में बंद है हर झील का साज़
काँटों के सेज पर बिची है हर फूल की सुहास
नियमों की मोहताज है आज हमारी हर सांस

प्रतिबन्ध का प्रतिबिम्ब है आज हर ज़िन्दगी
मुझे आज़ाद करो, ये कहती है हर बंदगी
इंसान ने इंसान को जकड़े रखा है क्यों?
खुदा की ज़मीन पर ये बेड़ियाँ है क्यों?

आज़ाद होना है, पर आज़ाद करना नहीं
जाना यहाँ से है, पर रहना फिरभी है यहीं
वो क्या है जो मैं समझ नहीं पाता हूँ
मेरी नासमझी है, या लोगों की अंधी आरज़ू

क्यों दुनिया की स्पर्धा में बिचड रहा हूँ मैं?
क्यों हर दुनियादारी से पिछड़ रहा हूँ मैं?
वो क्या है जो सदियों से ढूंढ रहा हूँ मैं?
वो क्या है जो सदियों से ढूंढ रहा हूँ मैं?

Friday, July 22, 2011

The slave that turned master

I once found a young one,
small, supple and docile. 
I fostered him in incubation 
to save him from the worldly guile.

We played a lot together.
It was fun, him with me. 
We got so used to each other, 
we became our mutual destiny.

As he grew, he changed form,
faithful and sturdy and strong.
He helped my tasks perform 
and scared the beasts that jungles throng. 

As if many lives woven in days,
he now mutated more rapidly. 
Daily, he revealed many facets:
the good, the bad and the ugly. 

He intrigued me and fascinated me,
he helped me and fed my dependence.
He entertained me and beguiled me,
he tricked and ruined my independence. 

He now danced at my fingertips,
like a puppet to a puppeteer.
But it was I for his keeps,
a pet that hid a monster. 

The beast was meant to serve me,
yet he managed to enslave me.
His mutations reflected my changing psychology,
this beast that I call ‘Technology’.