Friday, March 28, 2014

हाँ, मैं कवि हूँ

मैं सूरज को पानी पिलाऊँ
और बादलों में नहाने जाऊँ
मैं पहाड़ों में गोते खाऊँ
और लेहरों पे चलके जाऊँ

मैं तितली की सवारी करूँ
और झिलमिल तारों से बतियाऊँ
मैं चिड़िया संग उड़ जाऊँ
और फूलों की पिचकारी बनाऊँ

मैं समंदर से सूखा निकलूं
और सूरज में भीग जाऊँ
मैं बिन जहाज चाँद पे पहोंचु
और मस्त चांदनी में जल जाऊँ

मैं सफ़र को मंज़िल बनाऊँ
और हर मुकाम पे गीत गाउँ
मैं ख़ुशी में आँसू बहाऊँ
और ग़म में हँसी लुटाऊँ

मैं सोच की बीन बजाकर
कल्पना का पिटारा लाऊँ
ज़िंदगी को मदमस्त कर
नाग की तरह नचवाऊँ

मैं शब्दों की दुनिया बनाउ
फिर उसका खुदा बन जाऊँ
और कागज़ के अभिनेता को
मैं अपनी कटपुतली बनाउ

मैं जीतेजी मर जाऊँ
फिर मौत में जीवन पाउँ
जीने के मायने बदलूं
और अपने नियम बनाऊं

मेरे शब्दकोष में कहीं
नामुमकिन जैसा कुछ नहीं
शब्दों के जाल बुनकर
मैं बनाऊं स्वर्ग यहीं

मेरी कोई सीमा नहीं
नवरस का मैं सागर कोई
जाऊँ जहां सूरज नहीं
मैं हूँ कवि, सिर्फ एक कवि 

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