अब शहर की चकाचौन्द रास नहीं आती
की आसमान में उसने तारे बिछाए हैं
अब उसके नाम की माला हाथों से नहीं होती
की साँसों की माला में सिमरूं मैं उसका नाम
अब इंसान की जुबां समझ नहीं आती
की हम तो खुदा से गुफ्तगू करते हैं
की आसमान में उसने तारे बिछाए हैं
अब उसके नाम की माला हाथों से नहीं होती
की साँसों की माला में सिमरूं मैं उसका नाम
अब इंसान की जुबां समझ नहीं आती
की हम तो खुदा से गुफ्तगू करते हैं
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